श्री नृसिंह सरस्वती महाराजांच्या जीवनावर आधारित गुरुचरित्र या ग्रंथातील १८ व्या अध्यायात श्री गुरूंनी त्यांच्या भक्तांवर येणाऱ्या संकटांवर कशाप्रकारे उपाय केले आणि त्यांना या अडचणीतून बाहेर काढले आणि त्यांच्या आयुष्यात सकारात्मक बदल घडवून आणले याचे वर्णन केलेले आहे.
||श्री गणेशाय नमः ||
||श्री सरस्वत्ये नमः ||
||श्री गुरूभ्यो नमः ||
Gurucharitra Adhyay 18 श्लोक १ ते १०
श्री सरस्वत्ये नमः| श्री गुरूभ्यो नमः| जय जया सिद्धमुनि| तु तारक भवार्णि| सुधारस आमचे चरणी| पूर्ण केला दातारा||१||
गुरुचरित्र कामधेनु| ऐकता न हा धाये माझे मन | कांक्षित होते अंतःकरण| कथामृत ऐकावया ||२||
ध्यान लागले श्रीगुरुचरणी| तृप्त नव्हे अंतःकरणी|कथामृत संजीवनी | आणिक निरोपावे दातारा||३||
येणेपरी सिद्धासी| विनवी शिष्य भक्तीसी | माथा लाऊनि चरणांसी| कृपा भाकी तये वेळी||४||
शिष्य वचन ऐकोनी | संतोषला सिद्धमुनि | सांगतसे विस्तारोनि | ऐका श्रोते एकचित्ते||५||
ऐक शिष्या शिकामाणी | धन्य धन्य तुझी वाणी| तुझी भक्ती श्री गुरुचरणी| तल्लीन झाली परियेसा||६||
तुज करिता आम्हांसी| चेतन जाहले पारियेसीं| गुरु चरित्र अद्यंतेसी| स्मरण जाहले अवधारी||७||
भिल्लवडी स्थानमहिमा | निरोपिला अनुपमा| पुढील चरित्र उत्तमा| सांगेन ऐका एकचित्तें ||८||
क्वचित्काळ तये स्थानी | श्रीगुरू होते गौप्येनी| प्रकट जाहले म्हणोनि| पुढे निघाले परियेसा ||९||
वरुणासंगम असे ख्यात| दक्षिण वाराणसी म्हणत| श्री गुरु आले अवलोकित | भक्तानुग्रह करावया ||१०||
Gurucharitra Adhyay 18 श्लोक ११ ते २०
पुढें कृष्णातटकांत| श्री गुरु तीर्थे पावन करीत | पंचगंगासंगम ख्यात| तेथें राहिले द्वादशाब्दे||११||
अनुपम्य तीर्थ मनोहर| जैसे अविमुक्त काशीपूर| प्रयागसमान तीर्थ थोर | म्हणोनि राहिले परियेसा||१२||
कुरवपूर ग्राम गहन | कुरुक्षेत्र तोचिं जाण| पंचगंगा संगम कृष्णा| अत्योत्म परियेसा||१३||
कुरुक्षेत्रीं जितके पुण्य | तयाहुनि अधिक असे जाण| तीर्थे अस्ती अगण्य| म्हणोनि राहिले श्रीगुरू||१४||
पंचगंगानदीरी| प्रख्यात असे पुराणांतर| पांच नावे आहेति थोर| सांगेन ऐका एकचित्तें||१५||
शिवा भद्रा भोगावती | कुंभीनदी सरस्वती | ‘ पंचगंगा’ऐसी ख्याति| महापातक संहारी||१६||
ऐसी प्रख्यात पंचगंगा| आली कृष्णेचिया संगा| आली कृष्णेचिया संगा | प्रयागाहूनी असे चांगा|संगम स्थान मनोहर||१७||
अमरापूर म्हणिजे ग्राम| स्थान असे अनुपम्य| जैसा प्रयाग संगम| तैसे स्थान मनोहर||१८||
वृक्ष असे औदुंबर| प्रत्यक्ष जाणा कल्पतरू| देव असे अमरेश्वर| तया संगमा षटकूळ ||१९||
जैसी वाराणसी पुरी| गंगाभागीरथी- तीरी| पंचनदींसंगम थोरी| तत्समान परियेसा||२०||
Gurucharitra Adhyay 18 श्लोक २१ ते ३०
अमरेश्वरसंनिधानी | आहेति चौसष्ट योगिनी| शक्तीतीर्थ निर्गुणी| प्रख्यात असे परियेसा||२१||
अमरेश्वरलिंग बरवे| त्यासी वंदुनी स्वभावे| पूजितां नर अमर होय| विश्वनाथ तोचि जाणा||२२||
प्रयागी करितां माघस्नान| जें पुण्य होय साधन | शतगुण होय तयाहून| एक स्नाने परियेसा||२३||
सहज नदी संगमांत| प्रयागसमान असे ख्यात| अमरेश्वर परब्रम्ह वस्तू| तया स्थानी वास असे||२४||
याकारणें तिये स्थानी | कोटीतीर्थे असती निर्गुण | वाहे गंगो दक्षिणी| वेणीसहित निरंतर||२५||
अमित तीर्थे तया स्थानी | सांगता विस्तार पुराणीं| अष्टतीर्थ ख्याति जीण| तया कृष्णातटाकांत||२६||
उत्तर दिशी असे देखा वहे कृष्णा पश्चिममुखा| ‘ शुक्लतीर्थ’ नाम ऐका | ब्रहम्हत्यापाप दूर||२७||
औदुंबर सन्मूखेसी| तिनी तीर्थे परियेसी| एका नंतर एक धनुषी| तीर्थे असती मनोहर ||२८||
‘ पापविनाशी ‘ ‘ काम्यतीर्थ ‘| तिसरें सिद्ध वरदतीर्थ| अमरेश्वर संनिधार्थ| अनुपम्य असे भूमंडळी||२९||
पुढे संगम – षट्कुळांत | प्रयागतीर्थ असे ख्यात| ‘ शक्तीतीर्थ ‘ अमरतीर्थ ‘ | कोटीतीर्थ ‘ परियेसा||३०||
Gurucharitra Adhyay 18 श्लोक ३१ ते ४०
तीर्थे असती अपरांपर| सांगता असे विस्तार | या कारणें श्रीपाद गुरु | राहिले तेथें द्वादशाब्दे||३१||
कृष्णा वेणी नदी दोनी|पंचगंगा मिळोनी| सप्तनदीसंगम सगुणी| काय सांगू महिमा त्याची||३२||
ब्रह्महत्यादि महापातकें| जाळोनि जातीं स्नानें एकें| ऐसेंसिद्ध स्नान निकें| सकळाभीष्ट होय तेथें||३३||
काय सांगुं त्यांची महिमा | आणिक द्यावया नाहीं उपमा| दर्शनमातें होती काम्या| स्नान फळ काय वर्णू||३४||
साक्षात् कल्पतरू| असे वृक्ष औदुबरु| गौप्य होऊनी अगोचरू| राहिले श्रीगुरु तया स्थानी ||३५||
भक्तजनतारणार्थ | होणार असे ख्यात | राहिले तेथें श्री गुरुनाथ| म्हणोनि प्रकट जाहले जाणा||३६||
असता पुढें वर्तमानीं| भिक्षा करावया प्रतिदिनीं| अमरापूर ग्रामी| जाती श्रीगुरु परियेसा||३७||
तया ग्रामी द्विज एक | असे वेदभ्यासक | त्याची भार्या परिसेवक | पतिव्रत शिरोमणी||३८||
सुक्षीण असे तो ब्राह्मण| शुक्ल भिक्षा करी आपण | कर्ममार्गी आचरण | असे सात्विक वृत्तींने||३९||
तया विप्रमंदिरांत| असे वेल उन्नत| शेंगा निघती नित्य बहुत | त्याणे उदरपूर्ती करी||४०||
Gurucharitra Adhyay 18 श्लोक ४१ ते ५०
एखादे दिवशी त्या ब्राह्मणासी | वरो न मिळे परियेसीं| तया शेंगांते रांधोनि हर्षी| दिवस क्रमी येणेंपरी||४१||
ऐसा तो ब्राह्मण दरिद्री| याच कारणें उदर भरी | पंचमहायज्ञ कुसरी| अतिथी पूजी भक्तीने||४२||
वर्तता श्रीगुरु एके दिवसीं| तया विप्र मंदिरासी| गेले आपण भिक्षेसी| नेले विप्रे भक्तीनें||४३||
भक्तिपूर्वक श्री गुरूसी | पूजा करितो षोडशी| घेवडे – शेंगा बहुवसी | केले होती पत्र- शाका||४४||
भिक्षा करून ब्राह्मणासी| आश्वासिती गुरु संतोषी| गेलें तुझे दारिद्र दोषी| म्हणोनी निघती तये वेळी||४५||
तया विप्रांचे गृहात | जो का होता वेल उन्नत | घेवडा नाम विख्यात | आंगण सर्व वेष्टीलें असे ||४६||
तया वेलाचें झाडमुळ श्री गुरुमूर्ती छेदिती तत्काळ| टाकूनि देती परिबळे| गेले आपण संगमासी ||४७||
विप्रवनिता तयेवेळी| दुःख करिती पुत्र सकळी| म्हणती पहा हो दैव बळी | कैसे अदृष्ट आपुलें||४८||
आम्हीं तया यतिश्वरासी| काय उपद्रव केला त्यासी| आमुचा ग्रास छेदूनी कैसी | टाकोनि दिल्हा भूमीवरी||४९||
ऐसेपरी ते नारी| दुःख करी नानापरी| पुरुष तिचा कोप करी | म्हणे प्रारब्ध प्रमाण ||५०||
Gurucharitra Adhyay 18 श्लोक ५१ ते ६०
म्हणे स्त्रियेसी तयेवेळी| जें जें होणार जया काळी| निर्माण करी चंद्रमोळी| तया आधीन| विश्व जाण||५१||
विश्वव्यापक नारायण| उत्पत्तीस्थितिलया कारण | पिपीलिकादि स्थूळ हा जीवन| समस्तां आहार पुरवीतसे||५२||
‘आयरन्नं प्रयच्छति’|ऐसें बोले वेदश्रुति| पंचानन आहार हस्ती| केवी करी प्रत्यही||५३||
चौर्या्यशी लक्ष जीवराशी| स्थूल सूक्ष्म समस्तांसी| निर्माण केलें आहारासी| मग उत्पत्ति तदनंतरें||५४||
रंकरायासी एक दृष्टी| करुनि निक्षेपण| सकृत अथवा दुष्कृत्य जाण| आपुलें आपणचि भोगणे| पुढिल्यावरी काय बोले ||५५||
आपुलें दैव असतां उणें| पुढिल्या बोलती मूर्खपणे| जे पेरिलें तोंचि भक्षणें| कावनावरी बोल सांगे||५६||
बोल ठेवीसी यतीश्वरासी| आपलें आर्जव न विचारिसी | ग्रास हरितला म्हणसी| अविद्यासागरी बुडोनि||५७||
तो तारक आम्हांसी| म्हणोनि आला भिक्षेसी| नेलें आमुचे दारिद्रदोषी| तोचि तारील आमुतें||५८||
येणें परी स्त्रियेसी| संभाषी विप्र परियेसी| काढोनि वेल शाखेसी| टाकिता झाला गंगेत||५९||
तया वेलाचें मूळ थोरी| जे कां होतें आपुले द्वारी| काढूं म्हणुनि द्विजवरी| खाणिता झाला तया वेळीं||६०||
Gurucharitra Adhyay 18 श्लोक ६१ ते ७२
काढतां वेल मुळासी| लाधला कुंभे निधानेसी | आनंद झाला बहुवसी| घेउनि गेला घरांत||६१||
म्हणाती नवल काय वर्तीले| यतिश्वर आम्हां प्रसन्न झाले| म्हणोनि ह्या वेला छेदिलेंं | निधान लाधलें आम्हांसी||६२||
नर नव्हे तो योगेश्वर होईल ईश्वरी अवतार| आम्हां भेटला दैन्यहर| म्हणती चला दर्शनासी||६३||
जाऊनि संगमा श्रीगुरूसी| पूजा करिती बहुवसी| वृतांत संगती तयासी| तये वेळी परियेसा||६४||
श्री गुरु म्हणती तयासी| तुम्ही न सांगणें कवणासी| प्रकट करतां आम्हांसी| नसेल लक्ष्मी तुमचे घरी||६५||
ऐसेपरी तया द्विजासी| सांगे श्री गुरु परियेसी| अखंड लक्ष्मी तुमचे वंशी| पुत्र पौत्री नांदाल||६६||
ऐसा वर लधोन| गेली वनिता तो ब्राह्मण| श्री गुरुकृपा ऐसी जाण|दर्शनमात्रे दैन्य हरे||६७||
ज्यासी होय श्रीगुरुकृपा| त्यासी कैचे दैन्य पाप| कल्पवृक्ष – आश्रय करितां बापा| दैन्य कैंचे तया घरी ||६८||
दैव उणा असेल जो नरू| त्याणें आश्रयावा श्रीगुरु | तोचि उतरेल पैलपारु| पूज्य होय सकळिकांई||६९||
जो कोण भजेल श्रीगुरु| त्यासी लाधेल इहहा परू| अखंड लक्ष्मी त्याचे घरी| अष्टैश्वर्ये नांदती||७०||
सिद्धम्हणे नामधारकासी| श्रीगुरुमहिमा असे ऐसी| भजावे तुम्हीं मनोमानसीं|कामधेनु तुझ्या घरीं ||७१||
गंगाधराचा कुमर| सांगे श्रीगुरुचरित्रविस्तार | पुढील कथामृतसार|ऐका श्रोते एकचित्तें||७२||
इति श्री गुरुचरित्रामृते परम कथाकल्पतरौ श्री नृसिंहसरस्वत्यूपाख्याने सिद्ध – नामधारकसंवादे अमरापूरमहिमानं – द्विजदैन्यहरणं नाम अष्टादशोऽध्यायः||१८||
||श्री गुरुदत्तात्रेयार्पणमस्तू ||
|| श्री गुरुदेवदत्त||